The role of schools can be important in weaning children off mobile phones

The Role of Schools can be Crucial

छोटे बच्चों से मोबाईल की लत छुड़ाने के लिये महत्वपूर्ण हो सकती है स्कूलों की भूमिका

The Role of Schools can be Crucial

The role of schools can be important in weaning children off mobile phones

The Role of Schools can be Crucial

आज से करीब 25-27 साल पहले 8वीं क्लास से स्कूल का समय दोपहर 12 बजे से सायं 5 बजे तक होता था। उस सुबह बच्चे लगभग 7 बजे उठ जाते थे और रोजमर्रा के काम करके करीब 9-10 बजे तक पढ़ने के साथ-साथ होमवर्क भी कर लेते थे, फिर उसके बाद थोड़ा खेलकूद करके भोजन इत्यादि से निपट कर स्कूल की ओर प्रस्थान करते थे। स्कूल में करीब 5-6 घंट पढ़ाई करने के बाद घर आकर थोड़ा सा आराम करके दोस्तों के साथ मोहल्ले में खेलने चले जाते, क्योंकि उस समय ये बीमारी का तिलिस्म ‘‘मोबाईल’’ जो न था। फिर घर आकर खाना खाकर पढ़ने बैठ जाते ओर रात्रि में सोने से पहले मम्मी के हाथों से बना गर्म दूध पीतें ओर सो जाते, कुल मिलाकर उस जमाने में एक बच्चे की यही दिनचर्या होती थी।
मैं जिस खास मुद्दे पर अपनी बात कहना चाहता हूँ कि आज के डिजिटल युग में जहाँ हर तरफ अदृश्य तरंगों का जाल बढ़ता ही जा रहा है, उसकी गिरफ्त से निकलना किसी के लिए भी आसान नहीं है, क्योंकि आज ‘‘मोबाईल‘‘ ही दुनिया है।
छोटे-छोटे बच्चों को स्कूल भेजने के लिए माता-पिता को उन्हें सुबह 5.30 से 6 बजे के बीच उठाना ही पड़ता है। अब नन्हे-नन्हे बच्चे जो देर रात इन खतरनाक तरंगों के बीच सोते है, उन्हें आलस ओर अकड़न ने पकड़ा हुआ होता है। गिरते-पड़ते उठकर जल्दी-जल्दी ब्रश करके नहाया तो ठीक, ड्राईक्लीन की तो ठीक … और कई किलों वजनी बेग सम्भालते हुए दूध भी उन्हें उनकी दादी या मम्मी मोबाईल दिखाकर पिलाती है और अपने आपको गौरवान्वित महसूस करती है कि आज की जंग तो जीती। हम सब जानते है कि दूध में कैल्शियम होता है तो हम ये भी क्यों नहीं जानते कि इन मोबाईल से निकलने वाली तरंगें ओर इसकी तेज रोशनी में भी जहर हो सकता है, जो धीरे-धीरे इन नाजुक पोधों को अंदर से बढ़ने पर रोक रही है।
सुबह 5.30/6 बजे से उठे हुए बच्चे स्कूल में अपना समय बिताकर दोपहर में लगभग 1.30 से 2.30 बजे तक अपने-अपने घर पहुँचते है। आते ही वही लाड़ लड़ाने वाली दादी-मम्मी उन नन्हीं-नन्हीं कलियों में मोबाईल रूपी जहरीले इंजेक्शन से फिर दुलार नाम का जहर चढ़ाती है और उन्हें चिप्स, चॉकलेट, दूध, फ्रूट या खाना इत्यादि खिलाकर ही दम लेती है।
बच्चे अगर सो गए तो बढ़िया नहीं तो वही मोबाईल ओर वही सोफा … बैठे और षुरू हो गये षाॅटर््स ओर रील देखने। दिन भर आँखों ओर अंगुलियों को ऊपर-नीचे करते करते कब रात हो जाती है, पता ही नहीं चला और आ गयी फिर डीनर की बारी। अब जैसे तैसे थक हारकर डीनर निपटाया ओर फिर देखने लगे उस बड़े इडियट बॉक्स जिसे टीवी कहते है। नींद आते-आते रात में कभी ग्यारह बज गए तो कभी एक भी …. यह दृश्य आपको दस में से दस परिवार की पूरी दिनचर्या में देखने को मिल जाएगा।
जब यह लत धीरे-धीरे लगी है तो जाहिर सी बात है कि छूटेगी भी धीरे-धीरे ही, इसमें अगर सबसे बड़े मददगार जो हो सकते है, वो है सभी विद्यालय … लेकिन कैसे ??

How Schools can Play a Vital Role

दो-दो साल के सबसे कच्ची उम्र के बच्चों से लेकर कक्षा 7वीं तक के बच्चों की स्कूल सुबह जल्दी की ना होकर सुबह 11 बजे से शाम 5.30 तक ही कर देनी चाहिए। इससे यह निष्कर्ष निकलेगा कि बच्चे अपनी नींद पूरी करके सुबह 7 बजे तक उठ जायेंगे। नींद पूरी होगी तो अपने आप को तरोताजा भी महसूस करेंगे। अपना रूटीन वर्क करके स्कूल की पढ़ाई-होमवर्क में ध्यान दे पाएंगे क्योंकि 10.30 बजे तक उन्हें स्कूल के लिये तैयार होना ही पड़ेगा। एक परिवार में सुबह 7 बजे से 11 बजे तक का समय बहुत व्यस्त समय होता है, इन 3-4 घंटों में वह सुबह टीवी और मोबाईल में कम समय खर्च कर पाता है। क्योंकि बच्चों को स्कूल जाना होता है और कामकाजी पुरुषों या महिलाओं को ऑफिस। इन चार घंटों में बच्चे टीवी और मोबाईल से दूर रह पाएंगे और वें तरोताजा शरीर, शांत मन व बिना थकी आँखों से स्कूल जा पाएंगे।
दिन भर स्कूली दिनचर्या के बाद जब थककर शाम को 5.30 बजे से 6.30 बजे के बीच घर पहुंचेंगे तो भूख भी अपने आप जोरों से लगेगी और बिना मोबाइल मांगे खुद ही बोलेंगे कि मम्मी-मम्मी भूख लगी-खाना दो खाना दो। अब महत्वपूर्ण बात जो हम सभी को ध्यान देनी है कि भोजन करने से लेकर रात्रि में 10 बजे तक इन बच्चों के सोने के बीच का जो समय है, इसमें कुछ वक्त ये फिजिकल खेलकूद खेले। अपने घर से बाहर निकलकर गली-मोहल्ले में दोस्तों से मिलने जाए या परिवार के सदस्यों से कुछ बातें करें, दादा-दादी की सेवा करें, उनसे उनके अनुभवों से कुछ सीखें। इस रूटिन से फ्री होकर अपना होमवर्क व पढ़ाई कर ले। इसके बाद उन्हें स्वतः ही नींद आने लगेगी और वो सोने चले जायेंगे वो भी बिना मोबाईल देखे ….. इस तरह की व्यवस्था में थोड़ी-थोड़ी जिम्मेदारी हम सभी को उठानी या लेनी पड़ेगी। शुरुआत में कुछ दिनों तक दिक्कत आ सकती है क्योंकि हालतों के मद्देनजर हम सभी और खासकर ये बच्चे मोबाईल की तरंगों के मकड़जाल में उलझ से गए है। मैं सभी विद्यालयों से निवेदन करना चाहूँगा कि वें इस गंभीर मुद्दे पर अपने-अपने मैनेजमेंट से बात करें, माता-पिताओं को भी पूछे ओर बच्चों के आने वाले इस ‘‘सुखद भविष्य’’ पर मनन करके एक बढ़िया फैसला लेकर समाजहित ओर देशहित में एक मिसाल कायम करें। धन्यवाद। अर्चित अग्रवाल

The role of schools can be crucial

The role of schools can be crucial
The role of schools can be crucial

architaccurate.com/contact/
youtube.com/@ArchitAccurate
instagram.com/architaccurate

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *